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Thursday, July 14, 2011

...... "क्यूँ?.........................


क्यूँ?




बड़ी अजीब ओ गरीब शाम है ये..
न सूरज डूबता है, न चाँद निकलता है...


तारे भी परेशां है सारे..
किस मोड पे दस्तक दे, कौन दिशा में जाए

खामोश सारी फ़ज़ा है,
खामोश ये सारा जहां है..


आज इंसान ने फिर चलाई है गोली..
आज इंसान ने फिर इंसानों का वजूद मिटाया है...


परेशां हूँ मैं.. हैरान है वो..


बड़ी अजीब ओ गरीब शाम है ये..
न सूरज डूबता है, न चाँद निकलता है...



ये कौन सी रंजिश है जो ठहरती नहीं..
ये कौन सी फ़रियाद है जो मिटती नहीं..


"कहाँ है मेरा इलाही
कहाँ है मेरा रहबर"



आया हूँ तेरे दर पे.. तेरी इब्बादत को

ये इल्ल्तजाह है तुझसे...बस, अब और नहीं...

8 comments:

  1. really nice, we all wish the same- ab aur nahi..

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  2. @ tarunima... thanks and yeah... the limits are crossing the boundaries... bas , ab aur nahin...

    @ Preeti... thanks, aapna sabdo badal khub khub aabhar... :)

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  3. @ Blasphemous aesthete... yup... kassh, yet its very possible

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  4. O wish from deep down in my heart that it stops... but looks impractical in current scenarios :(

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  5. @ jyotiji... it will, believe me... it has to...

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  6. @bhargav: chocolates and sugar in your mouth for those words :)

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